Friday, September 16, 2016

तुमने पूछा था

तुमने कल फ़ोन किया था
और पूछा था ना
कि तुम कैसे हो
तो सुनो

तुमने उस पेड़ को देखा है
जो बारिश की चाह में
दिन रात जलता है
वो आवारा बादलों को
यूँ तकता है मानो
वो बरस पड़ेंगे
मैं वैसा हूँ

तुमने उस दरिया को देखा है
जो समन्दर की चाह में
न जाने कितने हज़ार मील का सफ़र करता है
और हिज्र की लम्बी घड़ियां बिताता है
और सूख जाता है
मैं वैसा हूँ

तुमने वो रात तो महसूस की होगी
दर्द में सिमटी घुलती हुई रात
जब चाँद भी न निकले
कोई आवारा सड़कों पर
उदास नग़मा छेड़ दे
और नींद न आए
मैं वैसा हूँ

तुमने पूछा था ना
कि मैं कैसा हूँ

16 sep 2016

6 comments:

  1. बेहतरीन नज़्म :) तुमने पूछा था...तो सुनो |
    सुखनवर साहब,
    बहोत बहोत धन्यवाद और बहोत शुक्रिया की हमें ये शानदार नज़्म पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुवा |

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  2. तुमने पूछा तो बताया है
    वरना हम अपना दर्द लिए बैठे थे
    अपना तो दर्द से याराना है...

    बहुत सुंदर नज़्म है सुख़नवर भाई.भगवान आपकी कलम को और ताकत दे.

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  3. दरिया .को.समंदर .की..चाह.और फिर सूख जाना
    वाह ज़नाब वाह

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  4. दरिया .को.समंदर .की..चाह.और फिर सूख जाना
    वाह ज़नाब वाह

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