तुमने कल फ़ोन किया था
और पूछा था ना
कि तुम कैसे हो
तो सुनो
तुमने उस पेड़ को देखा है
जो बारिश की चाह में
दिन रात जलता है
वो आवारा बादलों को
यूँ तकता है मानो
वो बरस पड़ेंगे
मैं वैसा हूँ
तुमने उस दरिया को देखा है
जो समन्दर की चाह में
न जाने कितने हज़ार मील का सफ़र करता है
और हिज्र की लम्बी घड़ियां बिताता है
और सूख जाता है
मैं वैसा हूँ
तुमने वो रात तो महसूस की होगी
दर्द में सिमटी घुलती हुई रात
जब चाँद भी न निकले
कोई आवारा सड़कों पर
उदास नग़मा छेड़ दे
और नींद न आए
मैं वैसा हूँ
तुमने पूछा था ना
कि मैं कैसा हूँ
16 sep 2016
उम्दा...
ReplyDelete#मासूम
उम्दा...
ReplyDelete#मासूम
बेहतरीन नज़्म :) तुमने पूछा था...तो सुनो |
ReplyDeleteसुखनवर साहब,
बहोत बहोत धन्यवाद और बहोत शुक्रिया की हमें ये शानदार नज़्म पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुवा |
तुमने पूछा तो बताया है
ReplyDeleteवरना हम अपना दर्द लिए बैठे थे
अपना तो दर्द से याराना है...
बहुत सुंदर नज़्म है सुख़नवर भाई.भगवान आपकी कलम को और ताकत दे.
दरिया .को.समंदर .की..चाह.और फिर सूख जाना
ReplyDeleteवाह ज़नाब वाह
दरिया .को.समंदर .की..चाह.और फिर सूख जाना
ReplyDeleteवाह ज़नाब वाह